कैसा आस्चर्य है हम उसी को ढूढ़ रहे है जो हमारे सब से करीब है , हम उसी को प्राप्त करने में असमर्थ है जो हमें पहले से ही प्राप्त है.हम उसी के नहीं हो सके जो हमेसा से हमारा है. वह करीब है, हम दूर है. वह तो सदैव उपलब्ध है हम ही उपलब्ध नहीं है. हमेसा ब्यस्त रहते है. हमेसा उलझे रहते है, कभी थक कर उसकी याद आती भी है तो उसे बाहर ही ढूढने लग जाते है. क्योकि हर चीज बाहर ही ढूढने की आदत जो पड़ गयी है. अंदर का रास्ता ही भूल गए है. भूल गए है कि हमारे अंदर ही खजाना है. बाहर की दुनिया से आज तक कोई भी संतुस्ट और सुखी नहीं हो सका और न तो कभी भी कोई हो सकेगा. फिर भी हम लगे हुए है. भले ही हमारे पास पूरी दुनिया की दौलत आ जाए, पूरी दुनिया का स्वामित्व आ जाए परन्तु सुख शांति तो उतनी ही दूर रहेगी जीतनी आज है. क्योकि वह बाहर है ही नहीं तो मिलेगी कहा से.
एक लक्ष्य पूर्ण होगा, तुरंत ही दूसरा लक्ष्य उसकी जगह ले लेगा और हम सदा ही उसके पीछे भागते ही रहेंगे और एक दिन ऐसा आएगा की हम भागने में भी समर्थ नहीं रहेंगे और लक्ष्य अधूरा ही रह जाएगा. जहा से चले थे , खुद को वहीँ पाएंगे , मंजिल अभी भी उतनी ही दूर होगी जीतनी पहले दिन थी. पहले और आखिरी दिन में कुछ भी अंतर नहीं होगा, शिवाय इसके कि पहले दिन पूरी जिंदगी पड़ी थी पाने के लिए और आज एक घडी भी नहीं बची है, समय समाप्त हो चुका है. चिड़िया खेत चुंग चुकी है.
हम स्वयं से बहुत दूर हो चुके है. इतने दूर की वहाँ से हम अपनी एक धुंधली तस्वीर भी नहीं देख पा रहें है.दूरी बहुत अधिक है अब और दूर नहीं जाना है, थोड़ा रुकना है. होस में आना है. सजग हो जाना है. और वापस अपनी ओर रुख करना है,लौटना है. जहाँ हम है, हमारा अस्तित्व है. जहाँ परम शांति है. परम आंनद है.
परमात्मा सदैव उपलब्ध है हम ही उसके लिए उपलब्ध नहीं है,वह पास है, हम दूर है. वह हमारे साथ है, हम किसी और के साथ है , उसकी ओर नजर ही नहीं फेर रहें है, मुह मोड़ कर बैठे है. भौतिक सुख साधनों के पीछे इतने पागल हो गए है की सुध-बुध सब खो चुके है,अपने- पराये का भी ज्ञान नहीं है, अपने हित – अनहित का भी ज्ञान नहीं है. जैसे किसी गहरे नसे में है.
होस में तो आना ही होगा , वक्त निकलता ही जा रहा है और हम अपनी धुन में ही है. भगवान के नाम पर कुछ नहीं करते ऐसा भी नहीं है, ब्रत करते है, पूजा -पाठ करते है, फूल- माला भी चढ़ाते है, बहुत कुछ करते है लेकिन वही नहीं करते जो करना चाहिए, बस जो करना चाहिए उसे छोड़ कर सब कुछ करते है. अपने अंदर झाकने को तैयार नहीं है . सारा गीता पड़ने को तैयार है, रामायण पढ़ने को तैयार है लेकिन खुद को पढ़ने को तैयार नहीं है. भजन -कीर्तन भी करने को तैयार है, यहाँ तक की नंगे पांव लम्बी पग यात्रा भी कर सकते है लेकिन खुद के अंदर की यात्रा करने को तैयार नहीं है.
सारी दुनिया का ज्ञान है हमें है, लेकिन स्वयं से ही अनजान है. न जाने क्या समस्या आ जाती है जब खुद की बात सुरु होती है.क्यों हम डर जाते है खुद की छान-बीन से, क्यों खुद से दूर भागते रहते है.क्यों नजर चुरा लेते है खुद से. क्यों इतने असहज है हम खुद के साथ.एक पल भी अकेले रहते है तो बोर होने लगते है, इतने बोरिंग क्यों हो गए है हम. हमें हमारा साथ ही प्रिय नहीं लगता है, क्या इतने बदसूरत हो गए है हम कि खुद को भी पसंद नहीं है.
कभी मंदिर में चले जाते है, कभी मस्जिद, या कभी चर्च या कभी गुरद्वारा. वहां जाकर भी हमें होस नहीं आता, उनके सन्देश को भी नहीं समझ पाते. वो सब भी यही कहते है की अपने अंदर देखो हम फिर भी उन्ही को देखते रहते है. वो कहते है मै तुम्हारे अंदर हूँ फिरभी हम उसे बाहर ही ढूढ़ते रहते है. सतगुरु कहते है खुद को देखो हम उनके पीछे भागने लगते हैं. जिन्होंने भी पाया है, अंदर ही पाया है हमें भी अंदर ही मिलेगा. बस एकबार होस में आ जाएँ, मन की डोर को खीचें ,खुद को समेटें, स्वयं पर केंद्रित करेँ, सूछ्म करेँ, इतना सूछ्म की बस हम ही रह जाएँ और कुछ भी नहीं.
आइये पमात्मा को छोड़ कर खुद को ढूढना सुरु करें, वह नहीं खोया है, खोये तो हम हैं, वह तो यहीं है हम ही कहीं और हैं. वह सब जगह है, तुममे है,मुझमे है, सबमे है हम ही भटके हुए है, खोए हुए हैं, और कहते हैं परमात्मा न जाने कहाँ खो गया है. खुद की तलास सुरु करें. जैसे – जैसे खुद के करीब आयगे , पमात्मा को भी करीब पायगे.
आइये ध्यान कि सुरुआत करेँ और स्वयं कि तलास सुरु करेँ.